चोटी की पकड़–83

सिपाही खड़ा रहा। जमादार और खजांची साथ निकले। रास्ते रास्ते निकल गए। सिंहद्वारवाले घाट से कुछ फासले पर एक कुंज में बातचीत करने लगे। 


मुन्ना ने देखा। छिपकर बातचीत सुनने के लिए, रास्ते के किनारे की मेंहदी की पेड़ों से बचती हुई पास पहुंची। खजांची से मिलने का मुकाम कुछ आगे है। जटाशंकर की नाड़ी छूट रही थी। पूछा, "क्या खबर है?"

खजांची ने कहा, "अभी दो रोज़ मत बोलो।"

"तब तो हमारी नौकरी चली जाएगी।"

"तब और नहीं बचेगी। पहले की बातें भी हमसे बताओ।"

"आप यह बताइए कि आगे की कार्रवाई क्या होगी।" जटाशंकर ने पूछा।

मुन्ना समझ गई, इन दोनों का मेल मिल चुका है। कारण समझ में न आया। जमादार के रपोट करने के विचार से डरी। पर जमी बैठी रही।

"अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, जमादार।" खजांची ने लाचार होकर कहा।

"अब हमारे मान की बात नहीं।"

"जमादार, सिर्फ़ इस कोठे का धान उस कोठे गया है। दबा जाओ।"

"दबा कहाँ से जायँ?"

जमादार रिपोर्ट न कर दे, इस डर से मुन्ना निकली। मिलने की ठानी। मेंहदी के किनारे से सड़क पर आ गई।

एकाएक उसके पहुँचने पर दोनों त्रस्त हुए। उसने कहा, "सिपाही की ओर से मेरी गवाही होगी।"

खजांची सकपका गया। जटाशंकर अपने बीजक की ढाल से तलवार झेल जाने को तैयार था। मुन्ना ने कहा, "मेरा हाल दोनों को मालूम है। हम तीनों का मिलना था। 

क्योंकि रानीजी हैं। रानी और राजा मिल गए। रुपया हमी लोगों में है, हमी लोगों का है। मिल्लत से चलना है, क्योंकि हमको बचना है। सिपाही को हम समझा लेंगे। क्या कहते हो जमादार?"

जमादार का बीजक-बल घट रहा था। चुपचाप खड़े थे।

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